पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४५०

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अम्मिला २२३ या मग मे षट् ऋतुन को रहि-रहि ऊधम होत । कबहू चमकत शरद् शशि, कबहुँ भाद्र खद्योत । २२४ ग्रीषम, वर्षा, शरद् मुद, शिशिर, मधुर हेमन्त, अन्तवन्त अनुराग मय, मजुल मदिर बसन्त । २२५ पारी-पारी सो सकल, ऋतु वैभव मिलि जात, पै एकाकी पथिक को, हृदय और अकुलात । २२६ विप्रयोग ग्रीपम भयो, ऑसू-पावस पीर, नित निरभ्र विश्वास की, भई शरद् ऋतु धीर । २२७ निपट निराशा को शिशिर, सशय को हेमन्त, चिर प्राशा को बनि गयो, कुसुमित वरद बसन्त । २२८ जीवन-पथ में मिलत जब, विकट निदाघ दुरन्त, तब अंग-अंग ते उठत है दाहक ज्वाल ज्वलन्त । ४३६