पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४५१

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पचम सर्ग २२६ झुलसत हिय, दहकन हृदय, आशा बरि-बरि जान, नडपत मन, मूखत अधर, गेम-रोम मुरझात । २३० दलित मनोरथ-बालका, होत अग्नि अगार, नग्न चरण मग-गामिनी, तडपत पन्थ मभार । २३१ मन-नभ-मडल मे तपत, प्रबल विछोह-पतग, चलन लूक उच्छ्वास की, लै मरीचिका मग । २३२ विश्व तपत, ब्रह्माड सब होत विदग्ध विशेप, बापी कूप तडाग मे, रहत न जल नि शेप । २३३ उठत ववडर लिए बालुका-धूलि-कण, घोर, धूमिल सो कै जात है, नभ-अम्बर को छोर । २३४ लगत प्यास, श्रमकण चुवत, छुवत लपट मय पौन, चली जात, तोऊ सतत, पथ गामिनि यह कौन ? ४३७