पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अम्मिला २४७ उडगण मिस चमकत, झरत, नैश हास्य के फूल, शरद्-निशा हुलसत, पहिरि मुद चाँदनी-दुकूल । २४८ त्यो पिय की मुसक्यान की स्मिति को अचल अोढ, लगन ठगौरी बदतु है, शरद निशा तै होड । २४६ 7 कबहुँ शीत कॅपकंपी, ज्यो हिय मे छुवै जात त्यो विचलित ताको, कबहुँ कम्पन हिये समात । २५० चिर प्रतीतिमय शरद् ऋतु, ठिठुरि शिशिर द्वै जात, ज्यो धीरज नैराश्य मे, परिणत है अकुलात । २५१ अग-अग कॅपिबे लगत, पहुँचत हिय लौ उड,

दरस परस की चाह अति, चलित करत हिय खड ।

२५२ चाह, आलिगन की भावना सँग रहिबे की शिशिर-निराशा मे करत, शीतल हिय-उत्साह । 1 ४४०