पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पचम मर्ग ४७० मम लघु जीवन-परिधि के, केन्द्र-बिन्दु तुम, देव, तुम साधन, तुम सिद्धि मम, तुम सुमिद्ध स्वयमेव । खचित भाग्य रेखान के, तुम रेखा-गणितज्ञ उलटी-सीधी रेख जानत तुम, सर्वज्ञ। सब, परिधि होत ज्यो-ज्यो बडी, होत केन्द्र सो रद्, अह-भाव के बढत ज्यो, बढत अन्धतम कर । बढन जात ज्यो-ज्यो सतत, अपनपन को गर्व दर होत तितनो अधिक, आत्म-निवेदन पर्व । ४७४ जितनी ही छोटी परिधि, जितनो लघु विस्तार उतनो केन्द्र नगीच है, समझ ममुभनहार । ४७५ 7 क्राका कहियत चेतना ? जीवन कहाँ कहाय कहा तत्त्व या स्फुरण को, जो इत-उत चल जाय ? ४७७