पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५०३

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पचम सर्ग १४२ हाँ कवहू हिय कहि उठन, व्यथा इन्यलम् देव । कहा करो कछु परि गई, हिय की दुर्वन्न टेव । ५४३ ज्यो अनचाह कढि उठत, अन्तस्तल की आह, त्योई कबहू दैन्य-मिस, प्रकटन हिय को दाह । ५४४ पै अब पिय लौ जाहुगी, हौ निपट अदीन, नापस पिय ढिग जाय किमि, हृदय-दीनना छीन ? हे हिय, अब छाडहु इतै, अपनो हा-हाकार, उपरामता, अरु निर्वेद अपार । धरहु धीर ५४६ साजन बन तप तप रहे, प्रज्वल दिवम-मणीव, धरहु ध्यान, हे हृदय तुम, अव दै उद्ग्रीव । ५४७ दोन बने, नत ग्रीव लै, अब न बिताबहु काल, शुद्ध सनेह-प्रवाह है, नित अदीन, उत्ताल । ४८६