पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५१२

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ऊम्मिला जानि दरद की अमिटता, यदि न करे कोउ नेह, कहा कहिय वा मनुज को ? वृथा धरी नर देह । वहिरन्तर के, दृगन के, खुले होत है प्रेम, जो न हिये की खुलि सके, तौ नहि निबहत नेम । नैकहु नैना ना नमे, जब देख्यो वह रूप, वह किशोरपन की ठसक, वह छवि शुभ्र अनूप । अजहूँ या स्मृति-पटल पें, बरसन की वह बात, अकित ऐसी है मनहुँ चढी जु काल्हि बरात । ६०० धनुष-यज्ञ की वह छटा, राजन्हि के वे ठाठ, तुम ऐसो दुर्धर्ष वह, मानहु उकठ कुकाठ । ५ आर्य राम को धैर्य वह, उनको वह उल्लास, राम नयन गभीरता, लखन नयन चल रास । ४६८