पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५१७

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पचम सर्ग खोई-खोई वृत्ति इक, उठि आवत है म्लान, इन-उन सब दिशि में लगत निरानन्द सुनमान । ६२७ उडत नयन-अलि गगन तन यो ई से अकुलात, उदासीन हिय होत है, अग शिथिल वै जान । ६२८ शून्य नील आकाश मे, नैना विचरन जाय, कढि आवत है हृदय ते, विफल प्राह निरुपाय । ६२६ भ्रमित श्रमित हवै जात है, मग्न मनोरथ मौन, थकित शिथिल सो चलत है, यह उसॉम को पौन । मथित, गलित, अति चलित हिय, दरसावत है क्लान्ति, प्रतिक्रिया मिस यो कबहुँ, वह पावत विश्रान्ति । सुरति अथक, पै, अधिकरण शिथिल होत एहि ठाहि, तन धरिबे की यह जिथा, मिटत पूर्णत नाहि । ५०३