पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५१८

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अम्मिला श्रान्त, अहो प्रिय, श्रान्त अति, बहुत भई हौ श्रान्त, पै ध्रुव पद धरती, चली आवतु हौ निन्ति । थकी अमित, पै रचहू, हौ न मानिहौ हार, छोड चुकी कबकी, सजन, हिय को हार विकार । लेहु गोद, हौ थकि गई, यह न कहोगी, देव, अब तो पथ पै चलन की खूब परि गई टेव । हारै इन्द्रिय उपकरण, तो न कछ बडि बात, अथक रहै जो हिय लगन, तौ न साधना घात । पथ को महदन्तर निरखि, निरखि मार्ग विस्तीर्ण, सत्य साधना को हृदय, कबहुँ न होत विदीर्ण । ६२७ अथक चरण, दरसन लगन, अथक साधना नीक, सन्नेहाराधन अथक, अमिट नह की लीक ।