पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५६३

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षष्ठ सर्ग केवल मात्र एक जीवन की मरणान्ता आशा धारे, जग मे कर्म - लिप्त होते है ये जड - वादी बेचारे, इसी लिए उनके कम्मों में प्रात्म विमोहन क्रीडा है, उनके कर्मो म मारण है, नाशन है, पर - पीडा है, इसे भूल ही जाते है वे, कि यह जगत तप का फल है, इस अश्वत्थ-वृक्ष का फल है तो वल्कल है। त्याग, भोग , करके त्यक्त आत्म - निर्गुणता, स्वय ईश जग - रूप हुश्रा, हो तप-तप्त प्रजापति बैठा, सकल वजन का भूप हुआ, यह ब्रह्माण्ड तपस्या के बल, गतिमय, स्रतिमय, चलित हुआ, अणु-अणु मे, कण-कण मे सन्तत प्रथम तपोबल ज्वलित हुग्रा, सतत तपस्या, त्याग निरन्तर, ! वहिरन्तर तपमय, तप से क्षण में ही मिट जाता--- है यह उद्भव - भय, राजन ।। राजन, ५४६