पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

षष्ठ सर्ग ६७ जीव सच्चिदानन्द रूप है, 'मैं' हूँ जग - कर्ता, भर्ता, 'मैं' हूँ जग-नाशक, उत्पादक, 'मैं' हूँ माया - तम - हर्ता--- 'मैं' पा सकता हूँ अपना पद, यदि अपने को पहचान, 'सोऽह,' यह है सत्य सनातन, यदि 'मैं' निज स्वरूप जानें, सतत प्रयत्नो म' अन्तहित है 'मेरी' मत-रूप छटा, 'मैं' बन जाता हूँ 'वह, ज्यो हो- यह बूंघट-पट रच हटा। जग को अपना रूप दिखाना, निज' श्रम-कण की भाई में, आत्म-बिम्ब को झलका देना, लोचन की परछाई मे, जीवनेतिकर्तव्यता यही रामचन्द्र के जीवन की, उसने इसी लिए निज नगरी छोडी, शरण गही वन की, सत्य-विचार हुए है विजयी, असुर-भाव-अपहरण हुआ, मै प्रसन्न हूँ, आज लक मे---- सद्भावो का वरण हुआ ।। ..