पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५८६

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ऊम्मिला मम, राजन्, कहती भाव-व्यजना -धाराएँ देखो, बढती जाती सचित बाते मेरे हिय की, आती है, चढती जाती है वाणी के- दोला की यह पैग बडी, आज राम की अनिर्वचनता सकुच रही है खडी-खडी, घडी- घडी कुछ भाव अनोखे- उठ-उठ पाते है, मन में चचल कथन-नोदना, नरपति, हो उठती है क्षण-क्षण मे । का पर, अब नही कहूँगा, राजन्, बहुत हो चुका सभाषण, केवल फिर से मै करता हूँ, निज कृतज्ञता ज्ञापन, सब वानर, सब रिक्ष वीरवर, है मम वत्सलता भाजन, और आप, सुग्रीव आदि की, कहूं बात क्या मै, राजन् निपट अधूरी ही रह जाती मम जीवन-आशा सारी, यदि न सहायक होते मेरे, आप बन्धु सम वन-चारी । ? ५७२