पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६१७

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षष्ठ मर्ग वह अनुभव शून्यता, देवि, वह- वन-जीवन की प्रथम घडी, उपालम्भ दे रही आज भी, वह बन-पथ मे खडी खडी, प्रथम दिवस जब तुम्ह श्रमित लख, करुणा-सिन्धु हुए विचलित, तब मरा पाषाण-हृदय भी, देवि, हो गया था विगलित, हम दो भूलो को सँग मे ले निकल रघुवर ज्ञानी, लटि रह हैं आज सग अनल परीक्षित दो प्राणी। थ १७२ 'यौवन गया, प्रौढता आई, प्रश्न गया, उत्तर आया, प्रॉख खुली, अँधेरा भागा, हमने जीवन पाया, यौवन की अन्वेपण-पीडा, प्रखर दुपहरी का वह त्राम, हर ले गया, देवि, जीवन के- चौदह वर्षों का वनवास, इस अपराह्न काल मे, भाभी, सजग शान्ति का अासव है, जीवन के कृतकृत्य भाव का इसमे सचित अनुभव है।