पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६२५

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षष्ठ सर्ग १८७ "बलि - बलि जाऊँ, मेरे लालन, यह सुन कर मै धन्य हुई, तुम को पाकर मम वत्सलता, कब की, वत्स, अनन्य हुई, पर तुम विलग न मानो, मेरे- हिय मे है कुछ ऐसी बात, कि नर, मारियो के हृदयो की, नहीं समझ पाते हैं, तान, नारी - हृदय-परख, पुरुषो की, है केवल मस्तिष्क - प्रमूति, मानूं हूँ मै कि है कदाचित उस में नहीं हृदय - अनुभूति । हृदय - सिन्धु नारी का जैसे उफन पडे है, हहर - हहर,- विकट ज्वार - भाटे की उस में जैसे उठती तुग लहर- जो कम्पन उस मे होता है, जैसी होती है तडपन,- जैसे रसरी तुडा-तुडा वह अकुलाता है क्षण क्षण,- त्यो सभवत नर हृदयो मे खर अनुभूति नही होती, पुभावना, कदाचित नर की अपना रूप नही खोती।