पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/६६

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) १४० " सीता जीजी, कह सकती हो तुम ये बाते कैसे ? हठ धर्मी कैसे कर सकती तुम कपोत से ऐसे ? वह कब्तरी बडी मृदुल थी वह हठ कैसे करती ? इन बातो पर वह कपोत से, बोलो, कैसे लडती ? १४१ अस्तु, कबूतर उडा और वह बेटी रही कपोती, अटवी मे अपनी आहो को नित रहती थी खोती पल बीते, घटिकाएं बीती, युग की बारी आई, क्षण-क्षण उसके जीवन-पथ मे धन अँधियारी छाई। १४२ बाट जोहती रही प्रति दिवस, पर, न कब्तर आया, दाना खाना छोडा उसने, छोडी जग की माया, छोटी-छोटी सब कपोतियाँ उसको समभाती थी, बडी-बडी सब सखियों उसका तन मन बहलाती थी। १४३ पर उसके जीवन मे धक-धक-धक जलती थी ज्वाला, एक धुओं मँडराया करता था वह काला-काला, एक दिवस जब अस्ताचल से रवि की किरणे आई , तब उन किरणो ने कबूतरी प्राणहीन थी पाई । अब तुम क्यो चुप बैठी हो? है यही कहानी मेरी, क्यो उदास हो देख रही हो जीजी, रानी मेरी?" "सुनो, बहन ऊम्मिले, मुझे अब ऐसी कथा न कहना । रोने-धोने की बातो से अच्छा है चुप रहना ।"