श्रीकृष्ण--तो विजय के साथ यश का डङ्का बजाओ और अपने कार्य में पूरी सफलता पाओ।
गाना
जो धर्म पै दृढ़ है, जिसका स्वच्छ हृदय है ।
कहते हैं वेद और शास्त्र, उसी की जय हैं।।
जिसने अपने कर्तव्य पै रण ठाना है ।
जिसने पर कारज का पहरा बाना है।।
जिसने स्वजाति का मूल तत्त्व जाना है।
जिसने स्वदेश का गौरब पहचाना है।।
जो स्वाभिमान के कारण दोवाना है ।
जो भान पै मर मिटने का मरदाना है।।
वह ही है रण बाँकुरा, और निर्भय है ।
कहते हैं वेद और शास्त्र, उसी की जय है ।।
सातवां दृश्य
(स्थान महल का एक भाग)
(ऊषा और चित्रलेखा का आना)
ऊषा--हाय, क्या कहूं ! किससे कहूँ?
थे मिले हुए दो फूल एक डाली के ऊपर खिले हुए ।
जालिम हाथों से दोनों ही टूटे और दममे जुद हुए ।।
चित्र०--प्यारी, धीरज धरो, इतना न घबराओ ।
ऊषा--कैसे न घबराऊं ? पशु पक्षी तक वियोग की वेदना से घबराते हैं, फिर मैं तो मनुष्य जाति में हूं ?