पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/१२४

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दृश्य दूसरा

(हरि मन्दिर)

गंगा०--[स्वगत] जय बोलो बेटा गङ्गादास, श्रीगुरुर्जी महाराज की जय बोलो, जिन्होंने धर्म की सच्ची कौड़ो थमाई ! कहाँ तो हम जैसे मूर्ख सौदाई और कहाँ गुसाई की पदवी पाई। ससारको चाहिए कि पुराने गुरुओं को छोड़कर मुझ जैसे नये व्यास को गुरु माने और मेरी सेवा में अपना सब तरह कल्याण जाता मैं तो नित्य सवेरे उठकर श्रीठाकुरजी से यही प्रार्थना किया करता हूं कि हे भगवन् , अब इन गुरुजी को शीघ्र अपनी सेवा में बुला लो और मुझे इनकी गद्दी पर बिठा दो।

हां,गुरुजी महाराज आज विष्णुपुराण का सत्संग सुनाएँगे और इस नगर के समस्त वैष्णव उसे सुनकर आनन्द पाए गे। किन्तु गुरुजी चतुर चेलियो ही की ओर ध्यान जमाएंगे-

{{block छंटेरचटक मटक भरी आती यहाँ पै चेली है। गुरू के बाग़ का हर फूल बस चमेली है ।।

(कुछ चलियो का आना)
 

महँत--[आकर] अरे बेटा गङ्गादास, खड़ा २ सोच क्या रहा है ? देखतो यह सुखदेई, हरदेई, रामदेई, आदि सब भागई, परन्तु माधवीजी अभी क्यों नहीं आई ?

गङ्गा०--[सामने देखकर ] सामने से वह शायद माधवी जी ही भारही हैं। (माधवी का आना)

महंत--क्यों माधवी, माज तुम इतनी देर से क्यों आई ? अबतक कहां थी?