सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( २७ )

पुरोहित--मैं ने भी यही विचारा था !

नारद--परन्तु पिता के लिये ग्रह कुछ वक्र हैं।

पुरोहित--मैं ने भी तो यही विचारा था !

वाणासुर--शुक्लजी आपने यह कहां विचारा था ?

पुरोहित--महाराज, अपने मनमें मैं यह बात विचार चुका था। जब बताने की घड़ी आई तभी थापने नारदजी के हाथ में पत्रिका पहुंचाई।

नारद--महाराम, शुक्लजी ने यह बात इसलिये नहीं बताई कि आपके ग्रह वक्र बताने के पहले इनके ग्रह वक्र होजाते । नारायण, नारायण,

पुरोहित--नहीं, ज्योतिपविद्या बड़ी अगम है । संभव है कि देवर्षि ने जन्मपत्रिका पर पूरी दृष्टि न डाली हो ! आज्ञा हो तो मैं फिर देखू !

वाणासुर--आप तो रोज ही देखते रहेंगे, इस समय भगवान् नारदजी को देखने दीजिये । हाँ तो देवर्षिजी, पिताके लिये इसक अह कैसे हैं ?

नारद--मेरे विचार से तो राजेन्द्र, इसके विवाह के समय रक्तपात होगा। आपको स्वयं किसी महारथी के साथ लड़ना पड़ेगा और घोर संग्राम करना पड़ेगा।

वाणासुर--[प्रसन्न होकर ] अहा, तबतो अानन्द ही आनन्द है। यह ग्रहों का टेढ़ापन नहीं बल्कि मेरी प्रसन्नता का चिन्ह है। युद्ध के नाम से मेरी भुजाएं फड़कती हैं, छाती फूलती है, रग रग में उत्साह बढ़ता है, रुए२ में रौद्ररस का संचार होता है, और