पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/४५

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ऐसा मालूम होता है कि वीरता का समुद्र उमड़ा हुआ चला आ रहा है :--

रणभूमी ही रंग भूमि है, वीर बहादुर योधा की ।
समरभूमि ही सुयशभूमि है, इस वाणासुर योधा की॥
धनसा गरजू, जलसा बरसू जब मैं हो रण के बसमें ।
तब नवजीवन सा आता है इस शरीर की नसनसमें॥

नारद--तो महाराज, इतना हम बताये देते हैं कि उस युद्ध का परिणाम दुःखान्तक नहीं होगा। युद्धकाल की समाप्ति पर स्वयं भगवात् शंकर आपके गृह पर आयेगे और संगाम के अभिनय पर सुख की यवनिका गिरायेगे।

वाणासुर--तबतो महान् हर्ष है । अपूर्व उत्साह है । अतीव आनन्द है । और अद्वित्तीय सुख्ख है।:-

दास के घर आयेगे स्वामी दया के वास्ते ।
कष्ट खुदही वे करेंगे अष कृपा के वास्ते ।।
तबतो इस किस्मतका तारा सबसे ऊंचा जायगा।
लग्न में लग्नेश होकर चन्द्रमा आ जायगा ॥

नारद--एक बात और कहना रह गई राजेन्द्र ।

वाणासुर--वह भी कह डालिए।

नारद-आपकी पुत्री का-

वाणासुर-हां, खोलकर कहिये ।

नारद--ग्रह बताते हैं-

वाणासुर--हां, हाँ, गह क्या बताते हैं ?

नारद--किसी वैष्णव के साथ पाणिप्रहण होगा।