पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/८९

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वाणासुर०--(अस्चर्य से) ल्य, झूले पर झूल रहा है ! मेरी ध्वजा ने गिर कर मुझे यह भेद बता दिया है कि मेरा बरी मेरे ही महल में झूले पर झूल रहा है। अच्छा, ठहर तो सही, मैं अभी तुझे झूला झूलने का मजा चखाता हूं।

देखू अब कैसे सुलेगा और कौन मुलाएगा स्कूजा ।
गुम्स से मेरे, फांसी का फन्दा बन जायेगा भूजा ।
सिपाहियो ! क्या देख रहे हो ! मागे बढ़ जाभो और
इस झूला झूलनेवाले को जंजीरों के मूजे में मुजाओ।

[ऊसा का वाणाघर के पास दौरत हुए पाना ]
 

ऊषा०-ठहरिये पिता जी

(साधासर का आषाको धक्का देदा और चित्रलेखा का उस सम्हालना, सिपाहियों का अनिरुद्ध को गिरफ्तार करना)

दृश्य पांचवां

(स्थान-महन्त माधोदास का मंदिर)

[माधोदास एका गटाममक साथ प्रवेश]

माघो०--सुन पश्चा गड्गराम, तू अब गुरूजी का सेवक और नहीजी का चेला बनाया जाता है।

गङ्गा०--कृपा है, गुरुजी की यह बड़ी कृपा है।

माधो०--काल से तेरे मेख का नाम गङ्गाराम के बदले गङ्गादास होता है, समझा ? अब स्म गुरु जी की सेवा बजाना और मालपुए उड़ाला।