पृष्ठ:कंकाल.pdf/११२

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तर्ग-पही तो यहाँ है ! यह परदेशी न जाने कहाँ से कूद पड़ा। नहीं तो अन्न तक- दोनों बातें करते अब आगे चढ़ गये । विजय ने पीछा करते जातो ही गुमना अनुचित समझा । बहु बंगले की ओर शोन्नता से चल पड़ा। | फुरसी पर बैठे पहूँ सोचने लगा-सपमुच घण्टी एक निस्सहाय युगती है, इतकी रक्षा करनी ही चाहिए। उसी दिन से विजय ने घण्टी रो पूर्धवत् मित्रता का वनि प्रारम्भ कर दिया—वही हँसना-बोलता, यही साग-साथ घूमना- पिला । निजग एक दिन हैण्डबैग की सफाई कर रहा था । अकल्माए उसे मंगल का वह पत्र और सोना मिल गया। चंसने एकान्त में बैठकर उसे फिर बनाने का प्रयत्न किया और वह कृतकार्य भी हुआ—सचमुच बह एक त्रिकोण स्वर्ण-अत्र वन गर । विजय के मन में भाई सुड़ी हो गई—उसने सोचा कि रारा ते उसके पुत्र को मिला दें, फिर उत्ते शंका हुई, सम्भव है कि मंगल उसका पुत्र न हो ! उसने अनवधानता से उत्त प्रश्न को टाल दिही । नहीं कहा जा सकता कि इस विहार में मंगल के प्रति विद्वेप में भी कुछ सहायता की थी या नहीं। बहुत दिनों की पड़ी हुई एक सुन्दर वसु भी उसके बेग में मिल गई। वह जसे लेकर बजाने क्षगा । विजय की दिनचयां नियमित हो जती । चित्र बनाना, धेशी याना और कभी-कभी घण्टी के साथ बैठकर ताँगे पर पूमने से जाना, इन्हीं कामो में उराका दिन सुख से बोचने लगा। केस : १०६