पृष्ठ:कंकाल.pdf/१२३

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पिछले दिनों में मैंने पुष्पोतम फी प्रारम्भिक जीवनी सुनाई थी, आज रोगाऊँग उनका सन्देश । उनका सन्देश था--आरमा नै स्वतन्त्रता का, साम्म का, गर्भगो का और बुद्धिवाद पन। आज हम घर्म है जिस ढाँचे को-या को– घेर पर रो रहै हैं, वह उनका धर्म नहीं या । प्रर्ग को वै बड़ी दूर की पवित्र या इरनै फी वस्तु नहीं बताते थे । उन्होंने स्वर्ग का लालच छोड़कर रूड़ियों के शर्म नौ पाप फक पोपचा नै । इन्होने कीवन्मुक्त होने का प्रचार किया 1 निःस्वार्थ 'भाष रो कर्म की महत्ता बतायी और उदाहरण से भी उसे सिद्ध किया । राजा नहीं थे ; पर अनायास झै ये पहाभारत के समाई हो सकते थे, पर हुए नहीं। सौन्दर्य, वण, विद्या, वैभव, महता, त्याग कोई भी ऐसे पदार्थ नहीं थे, तो उन्हें अप्राप्य रहे छौं । ने पूर्णकाम होने पर भी समाज के एक तटस्थ उपकारौ रहे । जंगल के कोने में बैठकर चन्झोने घर्ष का उपदेश कापाय ओढ़कर नहीं दिया; वे जीवन-मृद्ध के सारधी थे। इसकी उपराना-प्रणाली य–किसी भी प्रकार चिन्ता का अभाव होकर अन्धःक्रम का निर्मल हो जाना, विकल्प और संकल्प में शुद्ध त्रुरि की शरण जानवर' कर्त निश्चय करना । कर्म-शलता इसका योग हैं। निष्काम गर्म करना शान्ति है। जीवन-मरण में निर्भय रहना, क्षीरसैया करते रहना, नका सन्देश हैं। वे अार्य संस्ाति के शुद्ध गारतीय संग्ण हैं। गानों के संग ३ पते, दीनता की गोद में दुलारे गये । अत्याचारी राजा के सिंहासन चलटे-करोड़ों बलोन्मत्त शौं वैः मरण-यज्ञ में वे ईंधने वा अध्यमें थे । इस अर्यावर्त को महाभारत बनानेवाले थे—१ पर्मराज के सैन्पापक थे। समय आमा स्तंन हो, इसलिए, समाज घी म्यावहारिक धातों को धे शरीर-कर्म कहकर व्याख्या करते थे--क्या मह पद्य मृरत नहीं, क्या हमारे बर्तमान दूःखों में वह अवलम्बन न होगा ? सूर्य प्राणियों से निर्देर रखने वाला शान्तिपूर्ण शक्ति संवद्भित्र मानवता ना रूजु पथ, वा हम लोगों के पकाने योग्य नहीं है ? समवेत जनमण्डली ने कहा है, अनुश्य है ! हो, और उसमें कोई आइम्बर नही । इपासना के लिए एकान्त निश्चित अपस्था, और स्वाध्याय के लिए चुने हुए श्रुतियों के यार-भाग की संग्रह, गुण म से मिशेषता और पूर्ण आत्मनिष्ठा, रावी साधारण समता- इतना ही वो चाहिए । कार्यालम मत यनाइए, मित्रों में सद्दश एक-दूसरे को समझाइए, विसी गुइम पी जायसवता नहीं। आर्य-संस्कृति अपना तामरा माग, हृया विराम और जागेगी । भुपृष्ठ के मौसिक दैहारमनदी पक छठे । यान्त्रिक सभ्यता के पतनकान में वही मानव जाति का अवलम्बन होगी । ११४ : भाई घामम