साथ दगा न करेंगे बल्कि उनके साथ दोस्ताना बर्ताव करेंगे। उन सभों को कसम खाते देख सोमनाथ ने अपने चेहरे से नकाब उलट दी और तलवार म्यान से निकाल, सर के साथ लगा, गरज कर बोला, "आप लोगों के सामने खड़ा हुआ नाहरसिंह भी कसम खाता है कि अगर वह झूठा निकला तो दुर्गा की शरण में अपने हाथ से अपना सिर अर्पण करेगा। मेरा ही नाम नाहरसिंह है, आज तक मैं अपने को छिपाये हुए था और अपना नाम सोमनाथ जाहिर किए था।"
शमादान की रोशनी एकदम नाहरसिंह के खूबसूरत चेहरे पर दौड़ गई। उसकी सूरत, आवाज और उसके हियाब ने सभों को मोहित कर लिया, यहाँ तक कि खड़गसिंह ने उठ कर नाहरसिंह को गले लगा लिया और कहा, "बेशक, तुम बहादुर हो! ऐसे मौके पर इस तरह अपने को जाहिर करना तुम्हारा ही काम है! भगवती चाहे तो अवश्य तुम सच्चे निकलोगे, इसमें कोई शक नहीं। (सरदारों और जमींदारों की तरफ देख कर) उठो और ऐसे बहादुर को गले लगाओ, इन्हीं के हाथ से तुम लोगों का कष्ट दूर होगा!!"
सभों ने उठ कर नाहरसिंह को गले लगाया और खड़गसिंह ने बड़ी इज्जत के साथ उसे अपने बगल में बैठाया।
नाहर॰: वीरसिंह को मैं बाहर दरवाजे पर छोड़ आया हूँ।
खड़ग॰: क्या आप उन्हें अपने साथ लाए थे?
नाहर॰: जी हाँ।
खड़ग॰: शाबाश! तो अब उनको यहाँ बुला लेना चाहिए! (एक सरदार की तरफ देख कर) आप ही जाइए।
सरदार: बहुत अच्छा।
सरदार उठा और बीरसिंह को लिवा लाने ड्योढ़ी पर गया मगर उनके लौटने में देरी अन्दाज से ज्यादे हुई, इसलिए जब वह बीरसिंह को साथ लिए लौट आया तो खड़गसिंह ने पूछा, "इतनी देर क्यों लगी?"
सरदार: (बीरसिंह की तरफ इशारा कर के) ये टहलते हुए कुछ दूर निकल गए थे।
नाहर॰: बीरसिंह, तुम इधर आओ और अपने चेहरे से नकाब हटा दो क्योंकि आज हमने अपना पर्दा खोल दिया।
यह सुन कर बीरसिंह ने सिर हिलाया, मानो उसे ऐसा करना मंजूर नहीं है।