नाहर॰: खैर, क्या हर्ज है, बूझा जायगा, इस समय बाहर चल कर देखना चाहिए कि बीरसिंह कहाँ है और पता लगाना चाहिए कि उस बेचारे पर क्या गुजरी। मगर इस दुष्ट को किसी हिफाजत में छोड़ना मुनासिब है।
इस मामले के साथ ही कुमेटी में खलबली पड़ गई, सब उठ खड़े हुए, क्रोध के मारे सभों की हालत बदल गई। एक सरदार ने बच्चनसिंह के पास पहुँच कर उसे एक लात मारी और पूछा, "सच बोल, बीरसिंह कहाँ है और उसे क्या धोखा दिया गया, नहीं तो अभी तेरा सिर काट डालता हूँ!!"
इसका जवाब बच्चनसिंह ने कुछ न दिया, तब वह सरदार खड़गसिंह की तरफ देख कर बोला, "आप इसे मेरी हिफाजत में छोड़िए और बाहर जाकर बीरसिंह का पता लगायें, मैं इस हरामजादे से समझ लूँगा!!"
खड़गसिंह ने इशारे से नाहरसिंह से पूछा कि 'तुम्हारी क्या राय है'? नाहरसिंह ने झुककर खड़गसिंह के कान में कहा, "मुझे इस सरदार पर भी शक है जो इन सब सरदारों से बढ़ कर हमदर्दी दिखा रहा है।"
खड़ग॰: (जोर से) बेशक, ऐसा ही है!
खड़गसिंह ने उस सरदार को, जिसका नाम हरिहरसिंह था और बच्चनसिंह को, दूसरे सरदारों के हवाले किया और कहा, "राजा की बेईमानी अब हम पर अच्छी तरह जाहिर हो गई, इस समय ज्यादे बातचीत का मौका नहीं है, तुम इन दोनों को कैद करो, हम किसी और काम के लिए बाहर जाते हैं।"
खड़गसिंह ने अपने साथी तीन बहादुरों को अपने साथ आने का हुक्म दिया और नाहरसिंह से कहा, "अब देर मत करो, चलो!" ये पांचों आदमी उस मकान के बाहर हुए और फाटक पर पहुंचकर रुके। नाहरसिंह ने पहरे वालों से पूछा कि जिस आदमी को हम यहाँ छोड़ गए थे, वह हमारे जाने के बाद इसी जगह रहा या कहीं गया था?
पहरे॰: वह इधर-उधर टहल रहे थे, एक आदमी आया और उन्हें दूर बुला ले गया, हम लोग नहीं जानते कि वे कहाँ तक गए थे मगर बहुत देर के बाद लौटे, इसके बाद हुक्म के मुताबिक एक सरदार आकर उन्हें भीतर ले गया।
नाहर॰: (खड़गसिंह से) देखिये, मामला खुला न!
खड़ग॰: खैर, आगे चलो।
नाहर॰: अफसोस! बेचारा बीरसिंह!!