सलाह-विचार करते-करते रात का ज्यादा हिस्सा बीत गया और केवल घण्टे-भर रात बाकी रह गई। महाराज की बातें खतम भी न हुई थीं कि सामने का दरवाजा खुला और एक लाश उठाए हुए चार आदमी कमरे के अन्दर आते हुए दिखाई पड़े।
११
अब हम थोड़ा-सा हाल तारा का लिखते हैं जिसे इस उपन्यास के पहले ही बयान में छोड़ आये हैं। तारा बिल्कुल ही बेबस हो चुकी थी, उसे अपनी जिन्दगी की कुछ भी उम्मीद न रही थी। उसका बाप सुजनसिंह उसकी छाती पर बैठा जान लेने को तैयार था और तारा भी यह सुनकर कि उसका पति बीरसिंह अब जीता न बचेगा मरने के लिए तैयार थी, मगर उसकी मौत अभी दूर थी। यकायक दो आदमी वहाँ आ पहुंचे जिन्होंने पीछे से जाकर सुजनसिंह को तारा की छाती पर से खैंच लिया। सुजनसिंह लड़ने के लिए मुस्तैद हो गया और उसने वह हर्बा, जो तारा की जान लेने के लिए हाथ में लिए हुए था, एक आदमी पर चलाया। उस आदमी ने भी हर्वे का जवाब खंजर से दिया और दोनों में लड़ाई होने लगी। इतने ही में दूसरे आदमी ने तारा को गोद में उठा लिया और लड़ते हुए अपने साथी से विचित्र भाषा में कुछ कह कर बाग के बाहर का रास्ता लिया। इस कशमकश में बेचारी तारा डर के मारे एक दफे चिल्ला कर बेहोश हो गई और उसे तनोबदन की सुध न रही।
जब उसकी आँख खुली, उसने अपने को एक साधारण कुटी में पाया, सामने मन्द-मन्द धूनी जल रही थी और उसके आगे सिर से पैर तक भस्म लगाये बड़ी-बड़ी जटा और लांबी दाढ़ी में गिरह लगाये एक साधु बैठा था जो एकटक तारा की तरफ देख रहा था। उस साधु की पहली आवाज जो तारा के कान में पहुँची, यह थी, "बेटी तारा, तू डर मत, अपने को संभाल और होशहवास दुरुस्त कर।"
यह आवाज ऐसी नर्म और ढाढ़स देने वाली थी कि तारा का अभी तक धड़कने वाला कलेजा ठहर गया और वह अपने को संभाल कर उठ बैठी।
साधु: तारा, क्या सचमुच तेरा नाम तारा ही है या मुझे धोखा हुआ?
तारा: (हाथ जोड़कर) जी हाँ, मेरा नाम तारा ही है।