पृष्ठ:कपालकुण्डला.djvu/५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
कपालकुण्डला
५६
 

दिखाया न था। यही कारण था कि उस समय वह अकस्मात् कपालकुण्डलाके पाणिग्रहणके प्रश्नपर सम्मत न हुये थे। यही कारण था कि राहमें गृहपर न आनेतक नवकुमारने प्रणयसम्भाषण न किया था। उन्होंने अबतक प्रयण-सागर में अनुरागकी वायुको हिलोरें लेने न दिया। लेकिन वह आशंका दूर हो गयी। वेगसे बहनेवाली जलराशिको जिस प्रकार बाँधसे बाँध दिया जाये और बाँध टूटनेपर जलका उच्छ्वास उछल पड़े, वही दशा नवकुमार की हुई।

यह प्रेमका आविर्भाव केवल बातोंमें नहीं होता था; लेकिन कपालकुण्डलाको देखते ही सजल-लोचन ही, अनिमेष लोचनसे देखते रह जाते हैं, उससे ही प्रकट होता है; जिस प्रकार निष्प्रयोजन हो, प्रयोजनकी कल्पना कर वह कपालकुण्डलाके पास आते, इससे प्रकट होता है; बिना प्रसंगके जिस प्रकार बातों में कपालकुण्डला का प्रसंग उत्थापित करते, उससे प्रकट होता है। यहाँ तक कि उनकी प्रकृति भी बदलने लगी। जहाँ चंचलता थी, वहाँ गम्भीरता आने लगी; जहाँ अनमने रहते थे, वहाँ वह हर समय प्रसन्न रहने लगे। नवकुमारका चेहरा सदा प्रसन्नतासे खिला रहने लगा। हृदयके स्नेहका आधार हो जानेके कारण हर एकके प्रति स्नेहका बर्ताव होने लगा। विरक्तिकर लोगोंके प्रति भी स्नेहका बर्ताव होने लगा। मनुष्यमात्र प्रेमपात्र हो गया। पृथ्वी मानो सत्कर्मसाधनके लिये ही है, नवकुमारके चरित्रसे यही परिलक्षित होने लगा। समूचा संसार सुन्दर दिखाई देने लगा। सच्चा प्रणय कर्कशको भी मधुर बना देता है, असत्यको सत्य, पापीको पुण्यात्मा और अन्धकारको आलोकमय बना देता है।

और कपालकुण्डला; उसका क्या भाव था? चलो, पाठक! एक बार उसका भी दर्शन करें।