पृष्ठ:कपालकुण्डला.djvu/६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

:६:

अवरोधमें

“किमित्यपास्या भरणानि यौवने
धृतं त्वया वार्द्धक शोभि वल्कलम्।
वद प्रदोषे स्फुट चन्द्र तारका
विभावरी यद्यरुणाय कल्पते॥”
—कुमारसंभव।

यह सभीको अवगत है कि किसी समय सप्तग्राम महासमृद्धशालिनी नगरी थी। रोम नगरसे यवद्वीपतकके सारे व्यवसायी इस महानगरी एकत्रित होते थे। लेकिन वंगीय दशम-एकादश शताब्दीमें इस नगरीकी समृद्धितामें लघुता आयी। इसका प्रधान कारण यही था कि उस समय इस महानगरीके पादतलको धोती हुई जो नदी बहती थी, वह क्रमशः सूखने और पतली पड़ने लगी। अतः बड़े-बड़े व्यापारी जहाज इस सँकरी राहसे दूर ही रहने लगे इस तरह यहाँका व्यवसाय प्रायः लुप्त होने लगा। वाणिज्यप्रधान नगरोंका यदि व्यवसाय चला गया, तो सब चला गया। सप्तग्रामका सब कुछ गया। वंगीय एकादश शताब्दीमें इसकी प्रतियोगितामें हुगली नदी बनकर खड़ी हो गयी। वहाँ पोर्तगीज लोगोंने व्यापार प्रारम्भ कर दिया। सप्तग्रामकी धन-लक्ष्मी यद्यपि आकर्षित होने लगी, फिर भी सप्तग्राम एकबारगी हतश्री हो न सका। तबतक वहाँ फौजदार आदि राज-अधिकारियोंका निवास था। लेकिन नगरीका अधिकांश भाग बस्तीहीन होकर गाँवका रूप धारण करने लगा।

सप्तग्राम के एक निर्जन उपनगर भागमें नवकुमारका निवास