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पृष्ठ:कपालकुण्डला.djvu/८६

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तृतीय खण्ड

पे०—“यह भी तो समझमें नहीं आता।”

लु०—“मैंने इस आगरेमें कभी किसीसे प्रेम किया है?”

पे०—(धीरेसे) “किसीसे भी नहीं।”

लु०—“तो फिर मैं पत्थर नहीं हूँ, तो क्या हूँ?”

पे०—“तो अब प्रेम करनेकी इच्छा है, तो क्यों नहीं करती?”

लु०—“हृदय ही तो है। इसलिए आगरा छोड़ कर जा रही हूँ।”

पे०—इसकी जरूरत ही क्या है? आगरेमें क्या आदमी नहीं हैं, जो दूसरे देशमें जाओगी? अब जो तुमसे प्रेम कर रहे हैं, उन्हें तुम भी प्रेम क्यों नहीं करतीं? रूपमें, धनमें, ऐश्वर्यमें, चाहे जिसमें कहें, इस समय दिल्लीश्वरसे बढ़ कर पृथ्वीपर कौन है!

लु०—“आकाशमें चन्द्र-सूर्यके रहते जल अधोगामी क्यों होता है?”

पे०—“मैं ही पूछती हूँ क्यों?”

लु०—“ललाट लिखन—भाग्य!”

लुत्फुन्निसाने सारी बातें खुल कर न बतायीं।

पाषाणमें अग्निने प्रवेश किया; पाषाण गल रहा था।