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कबीर-ग्रंथावली

नाना भोजन स्वाद सुख, नारी सेती रंग।
बेगि छाड़ि पछिताइगा, ह्वै है मूरति भंग ॥ ९ ॥
नारि नसावैं तीनि सुख, जा नर पासैं होइ।
भगति मुकति निज ग्यान मैं, पैसि न सकई कोइ ॥ १० ॥
एक कनक अरू कांमनी, बिष फल कीएउ पाइ।
देखैं हीं थैं विष चढै, खांयें सूं मरि जाइ ॥ ११ ॥
एक कनक अरू कांमनीं, दोऊ अगनि की झाल।
देखें ही तन प्रजलै, परस्यां हैं पैमाल ॥ १२ ॥
कबीर भग की प्रीतड़ी, केते गए गडंत।
केते अजहूँ जाइसी, नरकि हसंत हसंत ॥ १३ ॥
जोरू जूठणि जगत की, भले बुरे का बीच।
उत्यम ते अलगे रहैं, निकटि रहैं तें नीच ॥ १४ ॥
नारी कुंड नरक का, बिरला थंभै बाग।
कोइ साधू जन ऊबरै, सब जग मूवा लाग ॥ १५ ॥
सुंदरि थैं सूली भली, बिरला बंचै कोइ।
लोह निहाला अगनि मैं, जलि बलि कोइला होय ॥ १६ ॥
अंधा नर चेतै नहीं, कटै न संसै सूल।
और गुनह हरि बकससी, कांमों डाल न मूल ॥ १७ ॥
भगति बिगाड़ी कांमियां, इंद्री केरै स्वादि।
हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि ॥ १८ ॥
कामीं अमीं न भावई, बिषई कौं ले सोधि।
कुबधि न जाई जीव की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोधि ॥ १६ ॥
विषै बिलंबी आत्मा, ताका मजकण खाया सोधि।
ग्यांन अंकूर न ऊगई, भावै निज प्रमोध ॥ २० ॥

(१३) ख०--गरकि हसंत हसंत।