सहज कौ अंग | ४१ |
बिषै कर्म की कंचुली,पहरि हुमा नर नाग ।
सिर फोड़ै सूझै नहीं,को भागिला प्रभाग ।। २१ ॥
कांमी कदे न हरि भजै,जपै न केसौ जाप ।
रांम कहां थें जलि मरै,को पुरिबला पाप ।। २२ ।।
कांमी लज्या नां करै,मन मांहैं अहिलाद ।
नींद न मांगै सांथरा,भूष न मांगै स्वाद ।। २३ ।।
नारि पराई प्रापणों,भुगत्या नरकहिं जाइ।
प्रागि प्रागि सबरौ कहै,तामैं हाथ न बांहि ॥ २४ ॥
कबीर कहता जात हौं,चेतै नहीं गॅवार ।
बैरागी गिरही कहा,कांमी वार न पार ॥ २५ ॥
ग्यांनी तौं नींडर भया,मांनैं नांहीं संक।
इंद्री केरे बसि पड़या,भूंचै बिषै निसंक ।। २६ ॥
ग्यांनी मूल गँवाइया,पापण भये करता ।
ताथैं संसारी भला,मन मैं रहै डरता ॥ २७ ॥ ४०४॥
(२१) सहज कौ अंग
सहज सहज सबको कहै,सहज न चीन्हें कोइ।
जिन्ह सहजैं बिषिया तजी,सहज कहीजै सोइ ॥१॥
(२२) इसके आगे ख० प्रति में यह दोहा है--
रांम कहंता जे खिजैं,कोढ़ी है गलि जांहि ।
सूकर होइ करि औतरैं,नांक बूंडतैं खांहि ॥ २५ ॥
(२३) इसके आगे ख० में यह दोहा है--
कांमी थैं कूतौ भलौ,खोलै एक जुं काछ।
रांम नांम जाणै नहीं,बांबी जेही वाच ॥ २७ ॥ .
(२७) इसके आगे ख० प्रति में यह दोहा है--
कांम कांम सबको कहै,कांम न चीन्है कोइ ।
जेती मन में कांमनां,कांम कहींजै सोइ ॥ ३२ ॥