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सूरा तन कौ अंग
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सूरा तबही परषिये,लड़ै धणीं कै हेत । पुरिजा पुरिजा है पड़े,तऊ न छाड़ै खेत ।। ६ ॥ खेत न छाड़ै सूरिवां,झूम द्वै दल मांहिं। आसा जीवन मरण की,मन मैं प्रांणै नाहिं ।। १० ।। अब तो झूझनां ही बणैं,मुड़ि चाल्यां घर दूरि । सिर साहिब कौं सौंपतां,सोच न कीजै सुर ॥ ११ ॥ अन तो ऐसी है पड़ी,मनकारु चित कीन्ह । मरनैं कहा डराइये,हाथि स्यंधौरा लीन्ह ॥ १२ ॥ जिस मरनैं थैं जग डरै,सो मेरे आनंद । कब मरिहूं कब देखिहूं,पूरन परमानंद ।। १३ ।। कायर बहुत पमांविहीं,बहकि न बोलै सुर । काम पड़यां हीं जांणिय है,किसके मुख परि नूर ॥ १४ ॥ जाइ पूछौ उस घाइलैं,दिवस पीड़ निस जाग । बहिण-हारा जाणिहै,कै जांणैं जिस लाग ।। १५ ॥ घाइल घूंमैं गहि भरपा,राख्या रहै न पोट । जतन कियां जीवै नहीं,बणीं मरम की चोट ॥ १६ ॥ ऊंचा बिरष अकासि फल,पंषो मूए झूरि । बहुत सयांनें पचि रहे,फलं निरमल परि दुरि ।। १७ ॥ दुरि भया तौ का भया,सिर दे नेड़ा होइ। जंब लग सिर सौंपै नहीं,कारिज सिधि न होइ ॥ १८ ॥ कबीर यहु घर प्रेम का,खाला का घर नंहिं । सीस उतारै हाथि करि,सो पैसै घर मांहिं ॥ १६ ।। कबीर निज घर प्रेम का,मारग अगम अगाध । सीस उतारि पग तलि धरै,तब निकटि प्रेम का स्वाद ।। २० ॥ ---------------------------------------- (१४)ख०-जाके मुख षटि नूर । (१७)ख.-पंथी मूए झूरि।
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