पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/११०

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( १०४ ) प्रीत जो लागी घुल गई पैठि गई मन माहि । 'रोम रोम पिउ-पिउ करै मुख की सरधा नाहिं ॥११२॥ जो जागत सो स्वप्न में ज्यों घट भीतर स्वाँस। जो जन जाको भावता सो जन ताके पास ॥११३।। पीया चाहे प्रेम रस राखा चाहे मान । एक म्यान में दो खड़ग देखा सुना न कान ।।११४॥ कविरा प्याला प्रेम का अंतर लिया लगाय । रोम रोम में रमि रहा और अमल क्या खाय ।।११५।। कबिरा हम गुरु रस पिया वाकी रही न छाक । पाका कलस कुम्हार का बहुरि न चढ़सी चाक ।।११६।। सबै रसायन में किया प्रेम समान न कोय । रति एक तन में संचरै सब तत कंचन होय ॥११७।। राता माता नाम का पीया प्रेम अघाय । मतवाला दीदार का माँगै मुक्ति वलाय ।।११।। मिलना जग में कठिन है मिलि विछुड़ोजनि कोय । विछुड़े सजन तेहि मिले जिन माथे मनि होय ।।११९।। जोई मिलै सो प्रीति में और मिलै सव कोय । मन सो मनसा ना मिलै देह मिले का होय ॥१२०।। नैनों की करि कोठरी पुतली पलँग विछाय। पलकों की चिक डारिके पिय को लिया रिझाय ॥१२॥ जव लगि मरने से डरै तब लगि प्रेमी नाहिं । वड़ी दूर है प्रेम घर समझ लेहु मन माहिं ॥१२२।। हरि से तू जनि हेत कर कर हरिजन से हेत । माल मुलुक हरि देत हैं हरिजन हरि ही देत ॥१२३।। कहा भयो तन वीछुरे दूरि वसे जे चास । नैना ही अंतर परा प्राण तुम्हारे पास ॥१२।।