पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/११२

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कविरा माला मनहिं की और सँसारी भेख । माला फेरे हरि मिलें गले रहँट के देख ।।१३७।। कविरा माला काठ की बहुत जतन का फेर । माला स्वाँस उसास की जामें गाँठ न मेर ॥१३८।। सहजे ही धुन होत है हरदम घट के माहि । सुरत शब्द मेला भया मुख की हाजत नाहि ॥१३९।। माला तो कर में फिरै जीभ फिरै मुख माहि । मनुवाँ तो दहुँदिसि फिरै यह तो सुमिरन नाहिं ॥१४०।। तनाथिर मन थिर वचन थिर सुरत निरत थिर होय । कह कवीर इस पलक को कलप न पात्र कोय ॥१४॥ जाप मरै अजपा मरै अनहद भी मर जाय । सुरत समानी शब्द में ताहि काल नहिं खाय ।।१४२।। कबिर छुधा है कूकरी करत भजन में संग। याको टुकड़ा डारि कै सुमिरल करो निसंक ।।१४३।। तूं तूं करता तूं भया मुझमें रही न हूँ। वारी तेरे नाम पर जित देखू तित तूं ॥१४४॥ विश्वास कविरा क्या में चिंतहूँ मम चिंते क्या होय । मेरी चिंता हरि करें चिंता मोहिं न कोय ॥१४५।। साधू गाँठ न वाँधई उदर समाता लेय। आगे पाछे हरि खड़े जव माँगे तब देय ।।१४।। पौ फाटी पगरा भया जागे जीवा जून । सब काह को देत है चोंच समाता चून ॥१४७।। कर्म करीमा लिखि रहा सब कुछ लिखा न होय । मासा घटे न तिल बढ़े जो सिर फोड़े कोय ॥१४॥