पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/११३

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( १०७ ) साँई. इतना दीजिये जामें कुटुंब समाय । मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाय ॥१४९।।' पाँडर पिंजर मन भँवर अरथ अनूपम वास । एक नाम सींचा अमी फल लागा विस्वास ॥१५०।।। गाया जिन पाया नहीं अनगाए तें दुरि । जिन गाया विस्वास गहि ताके सदा हरि ॥१५१५ बिरहिन विरहिन देय सँदेसरा सुनो हमारे पीव । जल विन मच्छी क्यों जिए पानी में का जीव ॥१५२।।' अँखियाँ तो झाँई परी पंथ निहार निहार। जीहड़िया छाला परा नाम पुकार पुकार ॥१५॥ नैनन तो झरि लाइया रहट वह निसु वास । पपिहाज्यों पिउ-पिउ रटै पिया मिलन की आस ॥१५४॥ बहुत दिनन की जोवती रटत तुम्हारो नाम । जिव तरसै तुव मिलन को मन नाहीं विश्राम ।।१५५।। विरह भुवंगम तन डसा मंत्र न लागै कोय । नाम वियोगी ना जिए जिए तो वाउर होय ॥१५६।।' विरह भुवंगम पैठिकै किया कलेजे घाव । विरही अंग न मोड़िहें. ज्यों भावे त्यों खाव ॥१५७॥ कै विरहिन को मीच दे कै आपा दिखलाय । आठ पहर का दामना मो पै सहा न जाय ॥१५८।। विरह कमंडल कर लिये वैरागी दो नैन । माँगै दरस मधूकरी छके रहैं दिन रैन ॥१५९।।. येहि तन का दिवला करा वाती मेलों जीव । लोहू सीचो तेल ज्यों कव मुख देखा पीच ॥१०॥