पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/११५

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सो दिन कैसा होयगा गुरू गहेंगे वाहि । अपनाकर बैठावहीं चरनकँवल की छाँहि ।।१७४।। जो जन विरही नाम के सदा मगन मन माँहि । ज्यों दरपन की सुंदरी किन पकड़ी नाहिं ।।१७।। । चकई विछुरी रैन की श्राय मिली परभात । सतगुरु से जो वीछुरे मिले दिवस नहिं रात ।।१७।। विरहिन उठि उठि भुइँ परै दरसन कारन राम । मूए पीछे देहुगे सो दरसन केहि काम ।।१७।। मूए पाछे मत मिलौ कहै कवीरा राम । लोहा माटी मिलि गया तव पारस केहि काम ।।१७८।। सब रग ताँत रवाव तन विरह वजावै नित्त । और न कोई सुनि सकै कै. साँई कै चित्त ॥१७९|| तूं मति जानै वीसीं प्रीति घटै मम चित्त । । मरूँ तो तुम सुमिरत मरूँ जिऊँ तो सुमिरु नित्त ।।१८०॥ विरह अगिन तन मन जला लागिरहा तत जीव । कै वा जाने विरहिनी कै जिन भेंटा पीव ।।१८।। 'विरह कुल्हारी तन वहै घाव न वाँधै रोह । मरने का संसय नहीं छूटि गया भ्रम मोह ।।१८।। कविरा वैद · बुलाइया पकरि के देखी वाँहि । वैद न वेदन जानई करक कलेजे माहिं ॥१८३।। विरह वान जेहि लागिया औषध लगत न ताहि । सुसुकि सुसुकि मरि मरि जियै उठै कराहि कराहि ॥१८॥ विनय सुरतिकरौ मेरे साँइयाँ हम हैं भव-जल माहि। आपे' ही 'वहि जायँगे जो नहिं पकरौ वाहि ।।१८५।।