पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/११७

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( १११) 'नाँव न जाने गाँव का विन जाने कित जाँव । चलता चलता जुग भया पाच कोस पर गाँव ॥१९८।। चलन चलन सब कोइ कहै मोहिं अंदेसा और। साहेब सो परिचय नहीं पहुँचगे केहि ठौर ।।१९९।। जहा न चींटी चढ़ि सकै राई ना ठहराय । मनुवाँ तहँ लै राखिए तहई पहुँचे जाय ॥२०॥ वाट विचारी क्या करै पथी न चले सुधार। राह आपनी छाडिकै चलै उजार उजार ॥२०१।। मरिये तो मरि जाइये छूटि परै जंजार । ऐसा मरना को मरै दिन में सौ सौ बार ॥२०२।। परीक्षक [पारखी] हीरा तहाँ न खोलिए जहँ खोटी है हाट । कस करि वाँधो गाठरी उठ कर चालो वाट ।।२०३।। 'हीरा पाया परखि के धन में दीया प्रान । चोट सही फूटा नहीं तव पाई पहिचान ||२०४।। जो हंसा मोती चुगै काँकर क्यों पतियाय । काँकर माथा ना नवै मोती मिले तो खाय ।।२०५।। हंसा वगुला एक सा मानसरोवर माहिं । वगा ढंढोरे माछरी हंसा मोती खाहिं ॥२०६।। चंदन गया विदेसड़े सव कोइ कहै पलास । ज्यों ज्यों चूल्हे झोकिया त्यों त्यों अधकी वास ।।२०७।। एक अचंभो देखिया हीरा हाट विकाय । परखनहारा वाहिरी कौड़ी वदले जाय ॥२०८।। दाम रतन धन पाइकै गाँठि चाँधि ना खोल। नाहिं पटन नहिं पारखी नहि गाहक नहिं मोल ॥२०९।।