पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/१६२

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(१४४ ) धैर्य धीरे धीरे रे मना धीरे सब कछु हाय । माली सींचे सो घड़ा ऋतु आए फल होय ।।५८३।। कविरा धीरज के धरे हाथी मन भर खाय । एक एक के कारने स्वान घर घर जाय ॥५८४।। कविरा भँवर में बैटि के भौचक मना न जाय । इबन का भय छाँड़ि दे करता कर सो हाय ।।५८५।। मैं मेरी सब जायगी तब श्रावेगी और । जब यह निश्चल हायगा तब पागा ठार ।।५।। - दीनता दीन गरीवी बंदगी साधन सां प्राधीन । नाक मंग में यों रह ज्यां पानी सँग मीन ।।५८७।। दीन लग्यं मुख सवन को दानहि लग्य न कोय । भली विचारी दीनता नरहुँ देवना हाय ।।५८८।। दीन गरीवी बंदगी सब से यादर भाव । फर कीर ने बड़ा जामें बढ़ा सुभाव ।।५८।। कविरा न सो श्राप को पर का नयं न काय । बालि तराजू नोलिए नये सा भाग हाय ।।५१०॥ इंच पानी ना टियः नीच ही टहराय । नांना तायमा भरि पिय ऊंचा प्यासा जाय ।५।। नांचे नांव मय नरं जेने बान अर्धान ! नद बोडिन अभिमान की यूर उंच कुलीन । मय न लगनाई भली लगना ने पाय। जागनिया को मंत्रमा नाम नर्व सरकार ||१३||