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पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२११

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( १९३ ) संतो यक अचरज भी भाई । कहीं तो को पतिआई॥ एक पुरुख एक है नारी ताकर करहु विचारा । . एकै अंड सकल चौरासी भर्म भुला संसारा॥ एकै नारी जाल पसारा जग में भया अंदेसा । खोजत काहू अंत न पाया ब्रह्मा विष्णु महेसा ।। नाग-फाँस लीन्हे घट भीतर मूसि सकल जग खाई। ज्ञान खग विन सब जग जूझै पकरि काहु नहिं पाई ।। आपुहि मूल फूल फुलवारी आपुहि चुनि चुनि खाई । कह कवीर तेई जन उवरे जेहिं गुरु लियो जगाई ।।५।। जगत-उत्पत्ति जीव रूप यक अंतर वासा । अंतर ज्योति कीन परगासा॥ इच्छा रूप नारि अवतरी। तासु नाम गायत्री धरी ।। तेहि नारी के पुत तिन भयऊ । ब्रह्मा विष्णु शंभु नाम धरेऊ ।। तव ब्रह्मा पूछत महतारी। कोतोर पुरुख काकर तुम नारी॥ तुम हम हम तुम और न कोई। तुम मोर पुरुप हमें तोर जोई ।। वाप पूत की नारि एक एकै माय विआय । दिख्यो.न पूत सपूत अस वापै चीन्है धाय ॥५२॥ अंतर ज्योति शब्द यक नारी । हरि ब्रह्मा ताके त्रिपुरारी॥ बखरी एक विधात कीन्हा । चौदह ठहर पाटि सो लीन्हा।। हरि हर ब्रह्म महँ ता नाऊँ। ते पुनि तीन वसावल गाँऊँ। ते पुन रचिनि खंड ब्रह्मंडा । छ दरशन छानवे पखंडा॥ पेटहिं काहु न वेद पढ़ाया। सुनति कराय तुरुकनहिश्राया। नारी गोचित गर्भ प्रसूती । स्वाँग धरे बहुत करतूती ।। तहिया हम तुम एकै लोहू । एकै . प्राण वियायल मोहू ॥ एकै जनी जना संसारा । कौन शान ते भयो निनारा॥ १३