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पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२१३

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( १९५ .) करता के नहिं बंधु श्री नारी । सदा अखंडित अगम अपारी॥ करता कछु खावै नहिं पीवै । करता कवहूँ मरै न जीवे.॥ करता के कुछ रूप न रेखा । करता के कुछ वरन न भेखा। जाके जात गोत कछु नाहीं। महिमा बरनि न जाय मी पाहीं। रूप अरूप नहीं तेहि नाऊँ । वर्न अवर्न नहीं तेहि ठाऊँ। कहैं कवीर विचारि कै जाके वर्न न गाँव । ' निराकार औ निर्गुना है पूरन सब ठाँव ॥५६॥ करता किरतिम वाजी लाई । ओंकार ते सृष्टि उपाई। 'पाँच तत्त तीनों गुन साजा । ताते सव किरतिम उपराजा किरतिम धरती और अकास । किरतिम चांद सूर परकास। किरतिम पाँच तत्त गुन तीनी । किरतिम सृष्टि जुमाया कीनी किरतिम आदि अंत मध तारा । किरतिम अंध कूप उँजियारा॥ किरतिम सरगुन सकल पसारा। किरतिम कहिए दस औतारा। किरतिमकंस और वलि वावन । किरतिम रघुपति किरतिमरावना किरतिम कच्छ मच्छ वाराहा। किरतिम भादो फागुन माहा॥ किरतिम सहर समुद्र तरंगा । किरतिम सरसुति जमुना गंगा ॥ किरतिम इसमृत वेद पुराना । किरतिम काजि कतेव कुराना। किरतिम जोग जो पावत पूजा । किरतिम देवी देव जो दूजा। किरतिम पाप पुन गुरु सीखा। किरतिम पढ़ना गुनना सीखा। कहै कवीर विचारि कै कृतिम न करता होय। यह सव वाजी कृतिम है साँच सुनो सव कोय ॥५७॥ करता एक और सव वाजी । ना कोई पीर मसायख काजी । वाजी ब्रह्मा विष्णु महेसा । बाजी इंदर चंद गनेसा॥ वाजी जल थल सकल जहाना । वाजी जान जमीं असमाना॥ बाजी वरनों. इसमृति वेदा । वाजीगर का लखै न भेदा। बाजी सिधं साधक गुरु सीखा । जहाँ तहाँ यह बाजी दीखा। याजी जोग जम व्रत, पूजा। वाजी देवी देवल दूजा।