पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२३८

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( २२० ) पूरि रह्यो असमान धरनि में जित देखो तित साहब मेरा। तसवीएकदिया मेरे साहव कह कवीर दिलही विच फेरा॥१२९॥ जागु रे जिव जागु रे अव क्या सोवै जिय जागु रे। चोरन को डर बहुत रहत है ,उठि उठि पहिरे लागु रे॥ ररौ खालि ममो करि भीतर ज्ञान रतन करि जागु रे । ऐसे जो अजरायल मारै मस्तक श्रावै भागु रे॥ ऐसी जागनि जो कोइ जागै तो हरि देह सोहागु रे। कह कवीर जागोई चहिए क्या गिरही वैरागु रे ॥१३०॥ उपदेश और चेतावनी गलना कासों बोलिए भाई । बोलत ही सव तत्व नसाई ।। लत बोलत वादु विकारा । सो बोलिए जो परे विचारा ॥ मेले जो संत वचन दुइ कहिए । मिले असंत मौन है रहिए । डित से वोलिय हितकारी । मूरख रहिए भख मारी। कह कवीर आधा घट डोले । पूरा होय विचार लै वोलै ॥१३१॥ परिहा रे तन का ले करि हो । प्रान छुटे वाहर लै धरिही । फाय विगुरचन अनवन वाटी । कोइ जारै कोइ गाड़े माटी । तारै हिंदु तुरुक ले गाई। ई परपंच दुनो घर 'छाँडै ।। फर्म फाँस जग जाल पसारा । ज्योधीमर मछरी गहि मारा ॥ पम विना नर कै हो कैसा । वाट माँझ गोवरोरा जैसा । कह कवीर पाछे पछतैहो । या घर से जव वा घर जैहो॥१३२॥ चलत का टेढ़े टेढ़े टेढ़े। दसो द्वार नरक में वूड़े दुरगंधों के वेढे ।। फूटे नैन हृदय नहिं सूझै भति एको नहिं जानी। काम क्रोध तृष्णा के मारे वूड़ि मुए विनु पानी ॥ .