( २२६ ) मैं कहता तू जागत रहियो तू रहता है सोइ रे । मैं कहती निरमोही रहियो तू जाता है मोहि रे॥ जुगन सुगन समझावत हारा कहा न मानत कोई रे । तृ तो रंडी फिरे विहंडी सब धन डारे खोइ रे ।। सतगुरु धारा निरमल वाह वामें काया धोइ रे। कहत कबीर सुनो भाई साधो तवही वैसा होइ रे ॥१४८॥ समझ देख मन मीत पियरवा आसिक होकर सोना क्या रे । ससा सूखा गम का टुकड़ा फीका और सलोना क्या रे ॥ पाया हो तो दे ले प्यारे पाय पाय फिर खोना क्यारे । जिन आँखिन में नोंद घनेरी तकिया और विछोना क्या रे । कहे कबीर मुनो भाई साधो सीस दिया तव रोना क्यारे॥१४॥ जाके नाम न श्रावत हिए। फार भए. नर कासि बसे से का गंगा-जल पिए । काह भए. नर जटा बढ़ाए का गुदरी के लिए। काह भयो कंटी के बाँधे काह तिलक के दिए । कहत कबीर मुनो भाई साधो नाहक ऐसे जिप ॥१५०॥ गुरु से कर मेल गँवारा। का सोचत वारंवारा ॥ जय पार उतरना चाहिए । नव केवट से मिल रहिए ! जब उतरि जाय भव पारा। तब छुटे यह मंमारा॥ जब दरसन देखा चाहिए । नव दरपन माँजत रहिए। जबदरपन लागत काई । नव दरमन कह ने पाई॥ जय गढ़ पर बनी वधाई । तब देखि नमाम जाई ।। जय गढ़ विच दांत सकला । तर हंसाचलत श्रकला। का कार देख मन कानी । वाकं अंतर बीच कतरनी ॥ कतरनी के गाँट नजुटानय पारि पकरि जग लूट ३५ चल पल रे. भारर चल पामा । नेगरी भारी बोल पनि उदास ॥
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