पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२६२

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( २४० ) श्रासन पवन किए दृढ़ रहु रे । मन को मैल छाडिदे वारे । क्या शृंगी मूड़ा चमकाए । क्या विभूति सव अंग लगाए । क्या हिंदू क्या मुसलमान । जाको सावित रहे इमान ।। क्या जो पढ़िया वेद पुरान । सो ब्राह्मण वृझै ब्रह्मज्ञान ।। कह कवीर कछु अान न कीजै । राम नाम जपिलोहालीजै।१९०। क्या नाँगे क्या वाँधे चाम । जो नहिं चीन्हें आतम राम ।। नाँगे फिरे योग जो होई । वन को मृगा मुकुत गो कोई ।। मूड़ मुड़ाए जो सिधि होई। मुंडी भेड़ मुक्त किन होई ।। विद राखे जो खेलहिं भाई । खुसने कौन परम गति पाई ।। पढ़े गुने उपजै हकारा । अध धर वृड़े वार न पारा ।। कहे कवीर सुनो रेभाई। राम नाम विन किन सिधि पाई ॥१९१। अस चरित देख मन भ्रमै मोर । तातेनिस दिनसुन रमो तोर ॥ एक पढ़हिं पाठ एक भ्रम उदास । एक नगम निरंतर रह निवास॥ एक जोग जुगुत तन हानि खीन । एक राम नाम सँग रहत लीन। एक होहि दीन एक देहिं दान । एक कलपि कलपि कै हो हरान।। एक तंत्र मंत्र औषधी वान । एक सकल सिद्धि राखें छापान ॥ एक तीरथ व्रत करि कायाजीति। एक राम नाम सौ करत प्रीति। एक धूम घोटि तन होहिं श्याम । तेरीमुक्ति नहीं विन राम नाम। सतगुरु शब्द तोहि कह पुकार। अव मूल गहो अनुभव विचार मैं जरा मरण ते भयउँ थीर । भै राम कृपा यह कह कबीर ॥१९२॥ संतो राम नाम जो पावै । तो वे वहरि न भव जल पावें ॥ जंगम तो सिद्धिहि को धा। निसि वासर शिव ध्यान लगावै॥ शिव शिव करत गए शिवं द्वारा। राम रहे उनहूँ ते न्यारा॥ जंगम जीव कवौं नहिं मारें। पढ़ें गुनै नहिं नाम उचारें। कायहि को थापें करतारा । राम रहै उनहूँ ते न्यारा ।। पंडित चारो वेद वखानै । पढ़े गुर्ने कछु भेद न जाने ॥ संध्या तरपन नेम अचारा। राम रहै उनहूँ ते न्यारा॥