पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/२६३

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( २४१ ) सिद्ध एक जो दूध अधारा । काम क्रोध नहिं तजै विकारा॥ खोजत फिरै राज को द्वारा । राम रहै उनहूँ ते न्यारा॥ वैरागी बहु वेख वनावै । करम धरम की जुगुत लगावै ।। घंट बजाय करें झनकारा । राम रहै उनहूँ ते न्यारा ।। जोगी एक जोग चित धरही । उलटे पवन साधना करही ।। जोग जुगुत ले मन में धारा । राम रहै उनहूँ ते न्यारा॥ तपसी एक जो तन को दहई । वस्ती त्यागि जंगल में रहई ।। कंद मूल फल करे अहारा । राम रहै उनहूँ ते न्यारा॥ मौनी एक जो मौन रहावें । और गाँव में धुनी लगावें ॥ दूध पूत दै चले लवारा । राम रहै उनहूँ ते न्यारा ।। यती एक बहु तुगत वनावें। पेट कारने जटा. वढ़ावें ॥ निसि वासर जो कर हंकारा । राम रहै उनहूँ ते न्यारा॥ पक्कर लै जिउ जवह कराहीं । मुख ते सवतर खुदा कहाही॥ लै कुतका कहें दम मदारा । राम रहै उनहूँ ते न्यारा॥ कहै कवीर सुनो टकसारा । सार सब्द हम प्रगट पुकारा।। जो नहिं मानहिं कहा हमारा । राम रहै उनहूँ ते न्यारा॥१९३॥ सुनता नहीं धुन की खवर, अनहद्द वाजा वाजता । रसमंद मंदिर गाजता, वाहर सुने तो क्या हुआ। गाँजा अफीमा पास्ता, साँग औ शरावें पीवता । इक प्रेमरस चाखा नहीं, अमली हुआ तो क्या हुआ ।। कासी गया और द्वारिका, तीरथ सकल भरमत फिरै।। गाँठी न खोली कपट की, तीरथ गया तो क्या हुआ ।। पाथी किताबें वाँचता, औरों को नित समझावता । त्रिकुटीमहल खोजै नहीं, वक वक मरा तो क्या हुआ। काजी, किताबें खोजता, करता नसीहत और को। महरम नहीं उस हाल से, काजी हुआ तो क्या हुआ। सतरंज चौपड़, गंजिफा, इक नई है बंदरंग की,