प्राप्ति क्यों न होगी? हाँ, जिसकी चित्तवृत्ति ही पाप की ओर हो, उसको लाभ कैसे होगा? ऐसे पुरुष के लिये कोई भी सद्वस्तु उपकारक नहीं हो सकती। जल संसार का जीवन है। उसे यदि कोई अनुचित रीति से पीकर अथवा व्यवहार करके प्राण दे दे, तो इसमें जल का क्या दोष! उसके ऐसा करने से जल निदनीय नहीं ठहराया जा सकता। प्रत्येक पदार्थ का उचित व्यवहार ही श्रेयस्कर होता है। तीर्थ के विषय में भी यही बात कही जा सकती है और यही तत्वज्ञता है। अव मूर्तिपूजा को लीजिए । कवीर साहब कहते हैं- पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पुर्जे पहार। ताते यह चाकी भली पीस खाय संसार ॥ पाहन केरी पूतरी करि पूजा करतार । वाहि भरोसे मत रहो वूड़ो कालीधार ॥ -साखीसंग्रह, पृष्ट १८३ श्रव में यह देखूगा कि क्या वास्तव में मूर्तिपूजा में कुछ तत्त्व नहीं है ? मुसल्मान धर्म का अनुसरण ही कबीर साहब ने इस विषय में किया है। इसलिये पहले मैं इस विषय में कुछ प्रतिष्ठित और मान्य मुसल्मानों की सम्मति यहाँ लिलूँगा। हजरत मिर्जा मजहर जानेजानाँ दिल्लीनिवासी कथन करते हैं- "दरहक़ीक़त बुतपरस्तीईहामुनासिवते व अकीदा कुफ्फार अरब नदारदकि ईहा बुताँरामुत्तसर्रिफ़ यो मुस्सिर विल्ज़ात मीगुफ्तन्द न पालये तसरफ़ इलाही। ईहां रा खुदाए ज़मीन मीदानन्द श्रोखुदाय ताला राखुदाय अस्मान श्रोई शिर्फ अस्तण -अलवशीर, जिल्द ६, नम्बर ३९, सफ़हा ७, मतवूया २७ सितम्बर सन् १९०४ ई०। "वास्तव में इनकी मूपूिजा अरव के काफिरों के विश्वास
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