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पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/८७

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इस बात की चेष्टा की है कि धर्मांधता से किसी तत्व का तिरस्कार न हो । यदि कोई कार्य सवुद्धि और सदुद्दश्य से किया जाता है, तो उसपर उन्होंने बलात् दोपारोपण करना उचित नहीं समझा। वे समझते थे कि संसार में समस्त मानव ही समान विचार के नहीं हैं। वे देखते ही थे कि बुद्धि का तारतम्य स्वाभाविक है। इसीलिये उन्होंने अधिकारी- भेद स्वीकार किया। उन्होंने उन सोपानों को नहीं तोड़ा जो ऊँचे चढ़ने के साधन हैं। किंतु यह अवश्य देखा कि किस सोपान पर चढ़ने का अधिकारी कौन है। उन्होंने विभिन्न विचारों, नाना आचार-व्यवहारों और अनेक उपासना पद्ध- तियों का सामंजस्य स्थापित किया, अनेक में एक को देखा, विरोध में अविरोध की महिमा दिखलाई,और दूसरों कीअभाव- मयी वृत्ति को भावमयी वना दिया । उनको अनेक कंटकाकीर्ण पथों में चलना पड़ा, उनके सामने अनेक भयंकर प्रवाह आए, उन्होंने सामयिक परिवर्तनों की रोमांचकारी मूर्तियाँ देखीं, उन्होंने अनार्यों की अभद्र कल्पनाएँ अवलोकन की, किंतु सवका सहानुभूति के साथ आलिंगन किया, और सबमें उसी सर्वव्यापक की सत्ता स्थापित की। असाधारण प्रतिभावान विद्वान् श्रीयुत वाबू रवींद्रनाथ ठाकुर ब्रह्मसमाजी है, प्रतिमा- पूजक नहीं किंतु वे क्या कहते हैं, सुनिए-- "विदेशी लोग जिसे मूर्ति-पूजा या बुतपरस्ता कहते हैं, उसे देखकर भारतवर्ष डरा नहीं। उसने उसे देखकर नाक- भी नहीं सिकोड़ी। भारतवर्ष ने पुलिंदशवर व्याध आदि से भी वीभत्स सामग्री ग्रहण करके उसे शिव (कल्याण) चना लिया है-उसमें अपना भाव स्थापित कर दिया है-उसके अंदर भी अपनी आध्यात्मिकता को अभिव्यक्त कर दिखाया है।