पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/९३

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दर्शन के निम्मलिखित सूत्र जैसी व्यापक और उदात्त परि- भाषा धर्म की कहाँ मिलेगी ? यतोभ्युदयनिःश्रेयस् सिद्धिः स धर्मः जिससे अभ्युदय और कल्याण अथवा परमार्थ की सिद्धि हो, वही धर्म है। हिंदू धर्म को छोड़कर कौन कह सकता है- अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ यह अपना और पराया है, यह लघुचेतसों का विचार है। जो उदार चरित हैं, वसुधा ही उनका कुटुंब है। क्या इससे भी बढ़कर भ्रातृभाव की कोई शिक्षा हो सकती है ? हिंदू धर्म इससे भी ऊँचा उठा, उसने भ्रातृसाच में कुछ विभेद देखाः अतएव भुक्तकंठ से कहा-"आत्मवत् सर्व- भूतेषु यः पश्यति स पंडितः" मनुष्य मात्र ही की नहीं, सर्व- भूत की आत्मा को जो अपनी आत्मा के समान देखता है, वही विज्ञ है। एक धर्मवाला दूसरे धर्म को वाधा पहुँचाकर ही आत्मप्रसाद लाभ करता है, परंतु हिंदू धर्म इसको युक्तिसंगत नहीं समझता. वह गंभीर भाव से कहता है- धर्मः यो वाधते धर्म न स धर्मः कुधर्म तत् । धर्माविरोधी यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्रमः॥ जो धर्म दूसरे धर्म को वाधा पहुंचाता है, वह धर्म नहीं कुधर्म है। जो धर्म दूसरे धर्म का अविरोधी है, सत्य पराक्रमशील धर्म वही है । इतना ही नहीं, वह अपना हृदय उदार एवं उन्नत बनाकर कहता है- रुचीनां वैचित्र्यात् कुटिलऋजुनानापथयुषां । नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥ .