पृष्ठ:कबीर वचनावली.djvu/९४

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.. नाना प्रकार की रुचि होने के कारण ऋजु और कुटिल नाना पथ भी हैं। किंतु हे परमात्मा सवका गम्य तू ही है, जैसे सर्व स्थानों से जल समुद्र में ही पहुँचता है। उसी के शास्त्र समूह का विश्व प्रेम का आधार स्वरूप यह वाक्य है- सर्वे भवंतु सुखिनः सर्व संतु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यतु मा कश्चिटु दुःखभाग भवेत् ॥ सब सुखी हों, सव सकुशल रहें, सबका कल्याण हो,' कोई दुःखभागी न हो । वही संसार के सम्मुख खड़े होकर तार स्वर से कहता है- . यद्यदात्मनि चेच्छेत तत्परस्यापि चिंतयेत् । आत्मनः प्रतिकृलानि परेषां न समाचरेत् ॥ जो जो अपनी आत्मा के लिये चाहते हो, वही दूसरों के लिये भी चाहो, जिसको अपनी आत्मा के प्रतिकृल समझते हो, उसको दूसरों के लिये मत करो। इतना लिखकर मैं आप लोगों का ध्यान कबीर साहब की शिक्षाओं की ओर आकर्पित करता हूँ। हिंदू धर्म के उक्त विचारों की सार्थकता तभी है, जब हम लोग भी वास्तव में उनके अनुकूल चलने फी चेष्टा करें। यदि हम उन विचारों को सामने रखकर फेवल गर्व करते है, और उनके अनुकूल आचरण करना नहीं चाहते, तो न केवल हमलोग अपनी यात्मा को फटुषित करते हैं, परन लोगों की दृष्टि में अपने शास्त्रों की भी मन्यांदा बटाते हैं। कार माहब की शिक्षायों को श्राप पढ़िए, मनन कीजिए, उनकं मिथ्याचार गंदन के अदय, और निर्भीक भाव को देखिय. उनकी सत्यप्रियता अवलोकन कीजिये, उनमें आपको अधिकांश हिंद भावों को प्रमा मिलेगी। यदि आप की मचि पोर. विचार प्रणाम गुन