( ८९ ) वातें उसमें मिलें, तो भी उसे श्राप देखिए, और उसमें से तत्त्व ग्रहण कीजिए: क्योंकि विवेकशील सज्जनों का मार्ग यही है । नाना विचार देखने से ही मनुष्य को अनुभव होता है। कवीर साहब भी मनुष्य थे, उनके पास भी हृदय था, कुछ संस्कार उनका भी था। अतएव समय-प्रवाह में पड़कर, हृदय पर आघात होने पर संस्कार के प्रवल पड़ जाने पर उनके स्वर का विकृत हो जाना असंभव नहीं। उनका कटु वातें कहना चकितकर नहीं। किंतु यदि आप उन्हें नहीं पढ़ेंगे, तो अपने विचारों को मर्यादापूर्ण करना कैसे सीखेंगे। वे प्रतिमा-पूजन के कट्टर विरोधी हैं, अवतारवाद को नहीं मानते परंतु इससे क्या ? परमात्मा की भक्ति करना तो वतलाते हैं, आपको ईश्वर-विमुख तो नहीं करते । हिंदू धर्म का चरम लक्ष्य यही तो है ! आपके कुल साधनों को वे काम में लाना नहीं चाहते, न लावें। परंतु जिन साधनों को वे काम में लाते हैं, वे भी तो आप ही के हैं। वह रुचिरैचित्र्य है । रुचिरैचित्र्य स्वाभाविक है। हिंदू धर्म उसको ग्रहण करता है, उससे घवराता नहीं। वे वेद-शास्त्र की निंदा करते हैं, हिंदू महापुरुषों को उन्मार्गगामी बतलाते हैं। हिंदू धर्मनेताओं की धूल उड़ाते हैं, यह सत्य है। परंतु उनके पंथवालों के साथ आप ऐक्य कैसे स्थापन करेंगे, जव तक इन विचारों को न जानेंगे। इसके अतिरिक्त जब वे वेद-शास्त्रों के सिद्धांतों का ही प्रतिपादन करते हैं, हिंदू महापुरुषों के प्रदर्शित पथ पर ही चलते हैं, हिंदू धर्मनेताओं की प्रणाली का ही अनुसरण करते हैं, तव उनका उक्त विचार स्वयं एकदेशी हो जाता है और रूपांतर से आप को ही इष्टप्राप्ति होती है। विवेकी पुरुष काम चाहता है, नाम नहीं। परमार्थ के लिये वह अपमान की परवाह नहीं करता। वे
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