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कर्बला

मु०―बढ़े चलो। महल पर चढ़ जाओ। क्या कहा, जीने नहीं हैं? जवाँमरदों को कभी ज़ीने का मुहताज नहीं देखा। तुम आप जीने बन जाओ।

जियाद―(दिल में) ज़ालिम एक-दूसरों के कन्धों पर चढ़ रहे हैं। (प्रकट) दोस्तो, यह हंगामा किस लिए है? मैं हुसैन का दुश्मन नहीं हूँ, मुस्लिम का दुश्मन नहीं हूँ। अगर तुमने हुसैन की बैयत क़बूल की है, तो मुबारक हो। वह शौक़ से आयें। मैं यज़ीद का गुलाम नहीं हूँ। जिसे क़ौम खलीफ़ा बनाये, उसका ग़ुलाम हूँ, लेकिन इसका तसफ़िया हंगामे से न होगा, इस मकान को पस्त करने से न होगा, अगर ऐसा हो, तो सबसे पहले इस पर मेरा हाथ उठेगा। मुझे क़त्ल करने से भी फ़ैसला न होगा, अगर ऐसा हो, तो मैं अपने हाथो अपना सिर क़लम करने को तैयार हूँ। इसका फ़ैसला आपस की सलाह से होगा।

मु०―ठहरो, बस, थोड़ी कसर और है। ऊपर पहुँचे कि तुम्हारी फ़तह है।

सुले०―ऐं! ये लोग भागे कहाँ जाते हैं? ठहरो-ठहरो, क्या बात है?

एक सि०―देखिए, क़ीस कुछ कह रहा है।

क़ीस―(खिड़की से सिर निकालकर) भाइयो, हम और तुम एक शहर के रहनेवाले हैं। क्या तुम हमारे खून से अपनी तलवारों की प्यास बुझाओगे? तुम में कितने ही मेरे साथ खेले हुए हैं। क्या यह मुनासिब है कि हम एक दूसरे का खून बहायें? हम लोगों ने दौलत के लालच से, रुतबे के लालच से और हुकूमत के लालच से यज़ीद की बैयत नहीं क़बूल की है, बल्कि महज़ इसलिए कि कूफ़ा की गलियों में खून के नाले न बहें।

कई आ०―हम ज़ियाद से लड़ना चाहते हैं, अपने भाइयों से नहीं।

मु०―ठहरो-ठहरो। इस दग़ाबाज़ की बातों में न आओं।

सुले०―अफ़सोस, कोई नहीं सुनता। सब भागे चले जाते हैं। वह कौन बदनसीब है, जिसके आदमी इतनी आसानी से बहकाये जा सकते हैं।

―मेरी नादानी थी कि इन पर एतबार किया।

सुले०―मैं हज़रत हुसैन को कौन मुँह दिखाऊँगा। ऐसे लोग दग़ा देते जा रहे हैं, जिनको मैं तक़दीर से ज्यादा अटल समझता था। कीस गया,