हज्जाज गया, हारिस गया, शीश ने दग़ा दी, अशअस ने दग़ा दी। जितने अपने थे, सब बेगाने हो गये।
मुख॰---अब हमारे साथ कुल तीस आदमी और रह गये। ( यज़ीद के सिपाही महल से निकलते हैं ) ख़ुदा, इन मूज़ियों से बचाओ। हज़रत मुस्लिम, मुझे अब कोई ऐसा मकान नज़र नहीं आता, जहाँ आपकी हिफ़ाज़त कर सकूँ। मुझे यहाँ की मिट्टी से भी दग़ा की बूआ रही है।
कसीर---ग़रीब का मकान हाज़िर है।
मुख०---अच्छी बात है। हज़रत मुस्लिम, आप इनके साथ जायँ। हमें रुखसत कीजिए। हम दो-चार ऐसे आदमियों का रहना ज़रूरी है, जो हज़रत हुसैन पर अपनी जान निसार कर सकें। हमे अपनी जान प्यारी नहीं, लेकिन हुसैन की ख़ातिर उसक़ी हिफ़ाज़त करनी पडेगी।
[ वे दोनो एक गली में गायब हो जाते हैं। ]
[ ९ बजे रात का समय। मुस्लिम एक अँधेरी गली में खड़े हैं। थोड़ी दूर पर एक चिराग़ जल रहा है। तौआ अपने मकान के दरवाज़े पर बैठी हुई है। ]
मुस्लिम---(स्वगत) उफ़्! इतनी गरमी मालूम होती है कि बदन का ख़ून आग हो गया। दिन-भर गुज़र गया, कहीं पानी का एक बूंद भी न नसीब हुअा। एक दिन, सिर्फ़ एक दिन पहले २० हज़ार आदमियों ने मेरे हाथों पर हुसैन की बैयत ली थी। आज किसी से एक बूँद पानी माँगते हुए ख़ौफ़ होता है कि कहीं गिरफ्तार न हो जाऊँ। साए पर दुश्मन का गुमान होता है। ख़ुदा से अब मेरी यही दुआ है कि हुसैन मक्के से न चले हों। आह कसीर! खुदा तुम्हें जन्नत मे जगह दे। कितना दिलेर, कितना जाँबाज़! दोस्त की हिमायत का पाक फ़र्ज़ इतनी जवाँमरदी से किसने पूरा किया होगा! तुम दोनो बाप और बेटे इस दग़ा और फ़रेब की दुनिया में रहने के लायक न थे। तुम्हारी मज़ार पर हूरें फ़ातिहा पढ़ने आयेंगी। आह! अब प्यास के