हैं। ये सब उसकी दयाशीलता और उदारता के प्रमाण हैं । यजीद ने मेरे नाम फरमान भेजा है कि मैं तुम्हारे ऊपर विशेष कृपा-दृष्टि करूं, और जिसे एक दीनार वृत्ति मिलती है, उसकी वृत्ति सौ दीनार कर दूं। इसी तरह वेतन में भी वृद्धि कर दूं, और तुम्हें उसके शत्र, हुसैन से लड़ने के लिये भेज । यदि तुम अपनी उन्नति और वृद्धि चाहते हो, तो तुरन्त तैयार हो जाओ । विलम्व करने से काम बिगड़ जायगा।"
यह व्याख्यान सुनते ही स्वार्थ के मतवाले नेता लोग, धर्माधर्म के विचार को तिलांजलि देकर, समर भूमि में चलने की तैयारी करने लगे। 'शिमर' ने चार हजार, सवार जमा किये, और वह बिन-साद से जा मिला। रिकाब ने दो हजार, हसीन ने चार हजार, मसायर ने तीन हजार और अन्य एक सरदार ने दो हजार योद्धा जमा किये । सब-के-सब दल-बल साजकर कर्बला को चले । उमर-बिन-साद के पास अब पूरे २२ सहस्र सैनिक हो गये । कैसी दिल्लगी है कि ७२ आदमियों को परास्त करने के लिए इतनी बड़ी सेना खड़ी हो जाय ! उन बहत्तर आदमियों में भी कितने ही बालक और कितने ही वृद्ध थे। फिर प्यास ने सभी को अधमरा कर रखा था।
किन्तु शत्रुओं ने अवस्था को भली-भाँति समझकर यह तैयारी की थी। हुसैन की शक्ति न्याय और सत्य की शक्ति थी। यह यजीद और हुसैन का संग्राम न था। यह इस्लाम धार्मिक जन-सत्ता का पूर्व कालिक इस्लाम की राज-सत्ता से संघर्ष था। हुसैन उन सब व्यवस्थाओं के पक्ष में थे, जिनका हजरत मोहम्मद द्वारा प्रादुर्भाव हुआ था; मगर यजीद उन सभी बातों का प्रतिपक्षी था। दैवयोग से इस समय अधर्म ने धर्म को पैरों-तले दबा लिया था; पर यह अवस्था एक क्षण में परिवर्तित हो सकती थी, और इसके लक्षण भी प्रकट होने लगे थे। बहुतेरे सैनिक जाने को तो चले जाते थे, परन्तु अधर्म के विचार से सेना से भाग आते थे। जब ओबैदुल्लाह को यह बात मालूम हुई, तो उसने कई निरीक्षक नियुक्त किये । उनका काम यही था कि